साईं बाबा रघुनाथ भास्कर पुरंदरे को बचाने आये

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मोक्ष का एक ही रास्ता है – गुरु के प्रति आत्मसमर्पण – जो आत्माएं अज्ञानी, अनजानी, दुर्भाग्यपूर्ण हैं, जो अपने जन्म के फायदे और नुकसान को समझने में सक्षम नहीं हैं, ऐसे आत्माओं को सांत्वना और मोक्ष तभी प्राप्त होता है जब वे साईं बाबा के समक्ष प्रेमपूर्वक आत्मसमर्पण करते हैं। बाबा करुणा और प्रेम के अथाह सागर हैं जो अपने भक्तों को बेड़ा पार कराने के लिए अपने गले से लगा लेते हैं, ठीक उसी तरह, जिस तरह कैलाशपति शिवजी ने अपने भक्तों के हित में विश का प्याला पी लिया था।

बाबा हमेशा रघुनाथ पुरंधरे को प्यार से “भाऊ” कहकर संबोधित किया करते थे। वह मुंबई में रहते थे और एक बार अपनी माँ के साथ शिरडी आए हुए थे। शिरडी में लंबे समय तक रहना उनके लिए एक प्रथा सा बन चुका था। ऐसे ही एक यात्रा के दौरान बाबा अपने दरबार के साथ द्वारकामाई में बैठे हुए थे। वह एक अच्छे मूड में थे और मजाक भी कर रहे थे।
उन्होंने पुरंधरे से कहा, “भाऊ, एक वाड़ा (भवन या घर) का निर्माण करो, मैं वहाँ रहना चाहता हूँ”।

इस पर पुरंदरे ने उत्तर दिया, “बाबा, घर के निर्माण के बारे में कृपया उल्लेख न करें, मेरे पास घर बनाने के लिए बहुत पैसा नहीं है, मैं एक अमीर व्यक्ति नहीं हूं, यह मेरे लिए एक असंभव काम है”

बाबा ने कहा, “हे भाऊ, मैं आपको तहे दिल से पर्याप्त पैसे दूंगा। मेरे पास तुम्हारे लिए बहुत सारा पैसा है, बस एक बार हहाँ कह कर तो देखो, फिर देखना मैं क्या करता हूँ”

पुरंदरे ने बाबा से कभी भी पैसे की उम्मीद नहीं की, “बाबा, मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस मुझे हमेशा आशीर्वाद देने के लिए मेरे सिर पर अपना वरदान देने वाला हाथ रखे रहें”

बाबा ने तुरंत अपनी कफ़नी की विशालकाय जेब से उस समय के छह मुद्रा सिक्के निकाले, जिन्हें पुरंधरे ने बाबा के समझाने के बाद बहुत संकोच के साथ स्वीकार कर लिया

वे ग्यारह दिनों तक शिरडी में रहे और प्रस्थान के दिन, वे बाबा की अनुमति लेने के लिए द्वारकामाई गए। उसकी माँ भी उसके साथ गई और बाबा ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा, “अरे आई, मैं मेरे भाऊ का ख्याल रखूंगा, भले ही वह मुझसे हजार कोस दूर क्यों न हो। कौन दावा करता है कि तुमने उसकी देखभाल की है और उसे एक परिपक्व वयस्क बनाया है। मैं बचपन से उसके चारों ओर घूम रहा हूं और उसकी देखभाल कर रहा हूँ। वह मेरे साथ है। यह उदी ले लो और अपनी वापसी की यात्रा शुरू करो”। यहाँ पर बाबा ने साफ साफ व्यक्त किया है की वो अपने भक्तों को एक माँ की तरह पाल पोस कर देखबाल करते हैं और उनके रहते हुए किसी और इंसान की आवश्यकता नहीं होती है।

कुछ समय बाद, पुरंधरे को किसी से पैसा मिला, जिसके इस्तेमाल से उन्होंने बांद्रा (मुंबई के एक उपनगर) में एक जमीन खरीदी और एक घर बनाया। अब उसे समझ में आया बाबा के कहने का मतलब “भाऊ, एक वाड़ा (भवन या मकान) बनाना, मैं वहाँ रहना चाहता हूँ”।

पुरंधरे आदतन शिरडी में 12-15 दिन रहते थे। अपने प्रवास के दौरान वे कभी भी आराम नहीं करते। वे तन और मन से अपना समय बाबा की सेवा में लगा देते। जो भी उन्हे देखता, ऐसे लगता जैसे की वक्त का उनको कोई पता ही न हो। अगर वे किसी भी त्योहार के दौरान शिर्डी में मौजूद होते, तो वो पालकी को सजाने, ध्वज को सजाने, बाबा जब लेंड़ीबाघ गए होते तब उनके बैठक की व्यवस्थित करने, द्वारकामाई के छत की मरम्मद करना, दीवारों में गड्ढे भरना आदि सभी छोटे और बड़े कार्य में तन मन लगा कर भक्ति के भाव से लगे रहते। द्वारकमाई तब एक कच्ची इमारत थी और इसलिए उसके फर्श में कई जगह में छोटे-मोटे मररम्मत का कार्य हमेशा रहता जिसे पुरंधरे स्वयं आगे बढ़ कर किया करते। एक बार पुरंधरे फर्श में लगे टाइल्स की तरह पत्थरों को फर्श में ठीक तरह से लगा रहे थे। वे गाय के गोबर और रेत-मिट्टी को मिलाकर हर एक पत्थर को उठाते और उसके नीचे उस मिश्रण का लेप फ़ैला देते और उस पर पत्थर रख देते ताकि वो मजबूती से बैठ जाय। इस कार्य को करते वक्त जब भी वो किसी पत्थर को उठाते तब उसके नीचे से कई बिच्छू निकल आते, हालांकि वो किसी हो हानी नहीं पहुंचाते। यह एक उदाहरण मात्र के लिए बताया गया है कि वो बाबा के प्रति कितने प्रेम और लग्न के साथ हर काम में लगे रहते। यह देख कर की पुरंधरे बिना आराम किए काम कर रहे हैं, बाबा उन पर गुस्सा करते और कई बार गुस्से में अपनत्व की भावना में अपशब्द भी बोल जाते, पर पुरंधरे कभी नहीं काम करना नहीं छोड़ते। मातृत्व भावना से व्यक्त किया हुआ हर शब्द सभी को भाता है और यही बाबा हमेशा करते। जब पुरंधरे बाबा की बात अनसुनी करते हुए काम करते रहते तो कभी-कभी बाबा इतने गुस्से हो जाते की वो छोटे पत्थर और ईंटों की टुकड़े भी फेंक देते और देखनेवालों को ऐसे लगता कि पुरंधरे जी को बाबा से पिटवाना भी मंजूर था पर बाबा की सेवा करना उनके लिए शिरोधार्य था। एक बार, बाबा ने उनकी नाक पकड़ कर खींच ली और चूले के पास द्वारकामाई बाहर खींच कर ले गए और गुस्से में कहा “चनालालयक आदमी, ये बहुत बेचैन रहता है, एक जगह पर शांत नहीं बैठता और मुझे भी शांत नहीं रहने देता है”। पुरंदरे ने कभी भी बाबा के इस गुस्से की परवाह नहीं की, क्योंकि उन्होंने बाबा को पूरी तरह से आत्मसमर्पण कर दिया था और यही एकमात्र ऐसी चीज है जिसे वे जानते थे और हमेशा याद करते थे।

एक बार शिरडी में रामनवमी उत्सव की तैयारी चल रही थी। पुरंधरे और पंडित नाम के एक भक्त, दोनों द्वारकामाई में एक भारी घंटी लटकाने की कोशिश कर रहे थे। उस प्रयोजन के लिए, वे दोनों एक मेज पर खड़े थे, भारी घंटी को उठाकर द्वारकामाई की छत से जुड़ी एक बड़ी कील पर इसे टाँगने की कोशिश कर रहे थे। बाबा अचानक ही लेंड़ीबाघ से जल्दबाजी में दौड़ते हुए आए। हमेशा की तरह चावड़ी जाने के बजाय, वह सीधे द्वारकामाई चले गए| द्वारकामाई में मौजूद कुछ और लोग अन्य काम कर रहे थे, बाबा को इतनी जल्दबाजी के साथ आते देखकर भाग गए क्योकि उन्हें लगा की बाबा बहुत नाराज हैं। उन्होंने वहां से भाग जाना सुरक्षित समझा क्योंकि कोई भी उनसे क्रोध का सामना नहीं करना चाहते थे। पुरंदरे और अन्य भक्त उस समय मेज पर थे, वे भारी घंटी के साथ मौके से भागने की स्थिति में नहीं थे। कोई अन्य विकल्प नहीं होने के साथ, वे उसी स्थान पर खड़े थे और वे एक इंच भी नहीं हट सकते थे। बाबा को आते देख अंदर ही अंदर इतने डरे हुए थे जैसे कोई व्यक्ति मृत्यु से डरता हो। बाबा ने ऊपर देखा, उनकी ओर इशारा किया और कहा, “देखिये ये लड़के यहाँ लगभग मर रहे हैं। कोई आओ और उनकी मदद करो। बेचारे वे इतनी बुरी स्थिति में फंस गए हैं कि वे भाग भी नहीं सकते।”

फिर अचानक उन दोनों को ऐसा महसूस हुआ कि घंटी का वजन कम हो गया है और जैसे की कोई पंख को हाथ में उठाए हों। पुरंधरे ने तुरंत छत तक घंटी को उठाया और टांग दिया और जल्दी से काम खत्म कर दिया। फिर नीचे आए और बाबा के पवित्र चरणों में मत्था टेक कर गिर गए। बाबा ने मीठा गुस्सा दिखाते हुए कहा, “तुम मुर्ख की तरह क्यों व्यवहार करते हैं, अगर तुम्हें कुछ हो जाता और अनर्थ हो जाता तो? अन्य सभी भाग गए और तुम फंस गए। मैं तुमको बचाने के लिए कहाँ कहाँ कितना पीछा करता रहूँगा? अल्लाह ही मलिक है”।

स्रोत: गुजराती पुस्तक “साईं सरोवर” से अनुवादित

© Sai Teri LeelaMember of SaiYugNetwork.com

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Hetal Patil Rawat
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