एक बार जब साईं बाबा ने कहा “वामनराव, तुम जिस तरह से द्वारकामाई का देखभाल कर रहे हो, उसी तरीके से तुम्हें राधाकृष्ण माई के झोपड़ी की भी देखभाल करना चाहिए।” वामनराव ने पहले ही बाबा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। बाबा के शब्द उनके लिए आज्ञा था। उस दिन के बाद से उन्होंने चौकस हो कर राधाकृष्ण माई के झोपड़ी की भी देखभाल करना शुरू किया। यहां तक कि उन्होंने माई की मालिश भी की। वह खुद को बाबा के एक विनम्र सेवक के विनम्र सेवक, मानते थे! राधाकृष्ण माई “योगिनी” थीं और उनकी सेवा करना उनका सबसे बड़ा धर्म था।
राधाकृष्ण माई अक्सर वामनराव को चिढ़ाती थीं, जब वह अपने शरीर को कठोर बनाकर मालिश करने को कहती। वामनराव थक कर बैठ जाते थे, शरीर की मालिश करते करते। वह तब उसे बेफिक्र हो कर अपनी पीठ पर चलने के लिए कहती। वामनराव अपने दिल से प्रार्थना करते, “माई, मैं थक गया हूं, कृपया कुछ दया दिखाएं!” चमत्कारिक ढंग से, माई का शरीर तुरंत ढीला हो जाता था जैसे कि उन्होंने वामनराव की मन की सुनी हो।
किसी ने राधाकृष्ण माई को बाबा के निकट कभी नहीं देखा था, चाहे वो द्वारकामाई में दर्शन के लिए हो या फिर बाबा के लेंड़ीबाग के चक्कर के व्यक्त। माई हमेशा बाबा को पर्दे के पीछे से देखा करती थीं। वामनराव ने उनके साथ रहने के दौरान दो बार इस बात पर गौर किया। माई आग पर चल सकती थी, लोगों के मन को पढ़ सकती थी, और लोगों के आसपास से अचानक गायब हो सकती थी। ये सभी सिद्धियाँ उनके वास्तविक आभूषण थे।
उनकी दिनचर्या में बाबा के लिए नाश्ता बनाना शामिल था। एक दिन उन्होंने वामनराव से कहा, “वामन्या, आज मेरी तबियत ठीक नहीं है, तुम नाश्ता बनाओ और बाबा के लिए ले जाओ”, इतना कहकर वह चली गई। उसने अपने आदेश का पालन किया – नाश्ता पकाया, उसे कुटिया के सामने द्वारकामाई में बाबा की सेवा की, और माई के लौटने की प्रतीक्षा करने लगे। जब माई दोपहर तक नहीं लौटी, तो वामनराव ने धैर्य खो दिया और गाँव में खोज करने लगे। देर रात हो गया जब माई झोपड़ी में लौटी।
इसके बाद वामनराव ने निश्चय किया कि वो राधाकृष्ण माई को कहीं नहीं जाने की अनुमति देंगे। अगले दिन, वही बात दोहराई गई, राधाकृष्ण माई ने नाश्ता बनाने की जिम्मेदारी वामनराव पर डाल दी और चली गईं। बेचैन वामनराव ने उसी क्षण माई का पीछा किया और उसे रोकने की कोशिश की। राधाकृष्ण माई आगे बढ़ी, वामनराव उनके पीछे हो लिए। जब दोनों बालाभाऊ के होटल के पास पहुँचे, अचानक माई वहाँ से गायब हो गई। इस घटना से वामनराव ने निष्कर्ष किया कि राधाकृष्ण माई के पास योगिक शक्तियां हैं।
एक अन्य घटना में, 1916 वर्ष के वर्षा ऋतु में, खंदक में पैर हो गया और लगातार पानी के संपर्क में रहने के कारण दर्द में थे। राधाकृष्ण माई ने अपने पैर के अंगूठे से वामनराव के पैर को छूकर, उन्हे पीढ़ा से मुक्ति दिलाई।
वर्ष 1914 की रामनवमी गुरुवार को था। बाबा के पूजा करने के लिए यह एक शुभ दिन था और वामनराव उन्हें कुछ कीमती उपहार देना चाहते थे। उनके पास कुछ भी खरीदने के लिए पैसे नहीं था और उन्होंने राधाकृष्ण माई के पास अपना दिल खोल दिया । माई ने कहा, “आप बाबा को एक दिया दान दीजिए और उसे उनके चरण कमलों में अर्पित कर दीजिए। वह दीपक से प्यार करते है। यदि आप ऐसा करते हैं, तो वह निश्चित रूप से आपके जीवन को दीपक की तरह रोशन करेंगे। आपको पैसे की चिंता नहीं करनी चाहिए, प्रभु; हर चीज का ख्याल रेखते हैं।” माई ने वामनराव के इच्छा को मुंबई के व्यापारी नार्वेकर को बताया, “वामनराव बाबा को उपहार में एक मूल्यवान दीपक देना चाहते है, मगर उनके पास अब धन की कमी है, लेकिन मैं उनकी इच्छा पूरा करना चाहती हूँ। वामनराव मासिक किश्तों में एक वर्ष के अंदर प्रति माह रु.25/- के हिसाब से उक्त राशि चुका देंगे।” नर्वकर ने सहमति व्यक्त की और वामनराव के लिए रु.125/- का एक दीपक तैयार किया।
25 मार्च, 1914 को रामनवमी उत्सव के लिए लाखों भक्त शिरडी में एकत्रित हुए । वामनराव ने भक्तों को दोपहर की आरती से पहले बाबा को उपहार भेंट करना चाहते थे। वह उत्तेजित थे और उन्होंने राधाकृष्ण माई को अपने साथ द्वारकामाई के आने और दीपक प्रस्तुत करने के लिए कहा। यह एक तथ्य है कि राधाकृष्ण माई बाबा के दर्शन के लिए कभी भी द्वारकमाई नहीं गई थी। माई ने वामनराव को दीपक जलाने के लिए कहा और कहा की वो उसके पीछे रहेंगी। वामनराव ने दीपक में घी डाला और उसमे दिया की बत्ती को भिगो कर रखा। फिर उन्होंने एक छोटी सी थाली में दीपक रखा और द्वारकामाई की ओर चल पड़े। जब उन्होंने द्वारकामाई की ओर कदम बढ़ाया, तो एक कोमल हाथ उनके कंधे को छू गया। वह पीछे मुड़ कर देखे और पाया कि राधाकृष्ण माई उसे समर्थन देते हुए कहते हैं, “जाओ वामन्या, आगे जाकर बाबा को यह सुंदर दीपक पेश करो”। राधाकृष्ण माई ने बाबा के दिव्य चेहरे को न देखने का व्रत लिया था; फिर भी वह द्वारकामाई में मौजूद थी। यह माई का अदृश्य अवतार था और वो केवल वमानराओ को ही दिखाई दे रही थीं। माई के इस अदृश्य रूप को देखने के लिए वो भाग्यशाली थे। अपने भक्तों के बीच इस तरह के संबंध को देख कर, बाबा चुपके से मुस्कुराए।
राधाकृष्ण माई पच्चीस साल के उम्र में शिरडी में आई और प्रसिद्ध हो गई। शिरडी के ग्रामीणों ने राधा-कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति को देखते हुए उन्हें मीराबाई के अवतार के रूप में देखा । शिरडी को बाबा के चरण कमलों का जो चुम्बन मिला उससे देख कर देवता भी ईर्ष्या से भर गए होंगे। माई एक दशक तक उसी भूमि पर रहीं और खुद को भक्ति और शक्ति से समर्पित कर दिया। इस तरह वह बाबा के लिए राधा बन गई । 25 अक्टूबर, 1917 को दशहरा के दिन, माई ने कोपरगाँव में नश्वर शरीर को छोड़ दिया। बाबा के पास समाचार पहुँचने से पहले उन्होंने गुस्से में अपना कफ़नी उतार कर धुनी में डाल दिया। उन्होंने अपने भक्तों को चेतावनी देते हुए कहा, “आप सभी अब मेरे रूप को देख रहें हैं, आप इस रूप को फिर कभी नहीं देख पाएंगे”। इस प्रकार बाबा ने राधाकृष्ण माई को अंतिम क्षणों में अनुग्रह करते हुए उन्हें तहे दिल से आशीर्वाद दिया।
विन्नी माँ ने राधाकृष्ण माई के जीवन के बारे में एक बहुत ही दिलचस्प वीडियो साझा किया है, जो नीचे साझा किया गया है। कृपया इस पोस्ट को अपने दोस्तों और परिवार के साथ साझा करें और यूट्यूब चैनल (पोस्ट के अंत में उपलब्ध कराए गए लिंक) को भी लाइक करें
स्रोत: साईं सरोवर से अनुवादित
इसके साथ, हम “राधाकृष्ण माई” श्रृंखला की समाप्ति पर आते हैं। आशा है कि आपको पढ़ने में उतना ही मजा आया होगा जितना कि मुझे इसका अनुवाद करने में मिला। हम अगले सप्ताह तक शिरडी में उनके साथ रहने वाले साईं बाबा के कुछ ज्ञात या अज्ञात भक्तों के बारे में एक और श्रृंखला शुरू करेंगे। लेटेस्ट अपडेट के लिए हमारे ब्लॉग पर आते रहें। मैं अनुवादित लेखन को संपादित करने के लिए अश्विनी और हमारे हिंदी ब्लॉग के लिए लेख का अनुवाद करने के लिए रामचंद्रन को दिल से धन्यवाद देना चाहूंगी।