एक दिन पुरंधरे नैवेद्य की थाली और पपानी से भरा हुआ लोटा लेकर आए। बाबा को यह देख कर बहुत गुस्सा आया और उन्होंने गुस्से से तेज आवाज़ में कहा, “तुम मुझे पूरी रात सोने नहीं देते, तुम मुझे कोई आराम भी नहीं करने दोगे, लेकिन याद रखना मैं तुम्हें छोड़ने वाला नहीं हूं। अब यह थाली ले कर यहां से चले जाओ।” आप सभी जानते हैं पुरंधरे ने अपना सर्वोच्छ अपने सद्गुरु साई बाबा के प्रति न्योछावर कर दिया था और बाबा उन्हे अपने बच्चे की तरह वात्सल्य प्रेम की आभा में पाल पोस कर उसका जीवनोद्धार कर रहे थे। जैसे एक माता एक शिशु को दिन रात देखभाल करती है, उसी तरह बाबा भी पुरंधरे की देखभाल मे लगे थे और जिस तरह एक गुरु भक्त अपने गुरु के चरणों मे अपने आपको आत्मसमर्पण कर अपने जीवन मुक्ति की तलाश में रहता है उसी तरह पुरंधरे रहते थे।
बाबा के क्रोध मे कहे गए वचन सुनने के बाद तो कोई भी उस जगह से भाग खड़ा होता पर अचल हो कर पुरंधारे ने जवाब दिया, “बाबा, आपने सुबह से कुछ नहीं खाया, अब आप इस भोजन को खाएं, इसके बाद ही हम सभी खाना शुरू करेंगे।” यहाँ पर आप देखेंगे कैसे पुरंधरे बाबा के प्रति प्रेम दर्शाते हुए निडर हो कर बाबा से बातें करते हैं। जहां सच्चा प्रेम हो, वहाँ भय कहाँ! ऐसे निर्भीक जवाब पाकर बाबा और अधिक क्रोधित हुए और कहा, “तुम ये थाली उठाओ, खुद ही यह खाना खाओ और ओरोको खिलाओ” बाबा के बढ़ते गुस्से को देखकर पुरंधरे वहाँ से भाग खड़े हुए।
उस रात पुरंधरे तेज सिरदर्द से पीड़ित थे। वे बिल्कुल नहीं सो सके और पूरी रात दर्द से बेचैन रहे। अगली सुबह, फकीर बाबा नाम के एक भक्त ने बाबा से कहा, “बाबा, ये भाउ तो रात में बहुत रोया था| उसका सिर बहोत दुखता है, कुछ दया करो। बेचारा भाउ| अख्खा दिनरात मरता है, कुछ धुप नय देखता। रातकु सोता ने, दिन कु सोता ने, कुछ न कुछ काम करे, तो उसकू एतना बीमार नय होना”| बाबा ने उत्तर दिया, “उसकू बहुत उत आया है”| मेरेकू चावड़ी में ने बैठने देता, मेरेकू मस्जिद में ने बैठने देता|” फ़क़ीर बाबा बोले, “बाबा! अपने वास्ते वो रातदिन मरता है, अब उसकू कुछ दवा देदे”| बाबा ने उत्तर दिया, “अल्लाह मालिक है”| यहाँ ये समझना जरूरी है कि गुरु की सेवा करते करते एक आम इंसान के भीतर अहंकार उत्पन्न हो सकता है, जिसे गुरु से छिपाया नहीं जा सकता और सिर्फ गुरुकृपा ही दूर कर सकती है।
एक बार गुरु पूर्णिमा के दौरान पुरंधरे शिरडी आए। उनके मन में एक विचार आया, “मैंने शिरडी में विभिन्न प्रकार के फूल कभी नहीं देखे हैं। अगर मैं बांद्रा से अच्छे महकने वाले फूल ले आता हूँ और उन्हें शिरडी में लगाता हूँ, तो भक्त मेरे बाबा को तरह-तरह के महकते हुए फूल चढ़ाएंगे।“ बाबा के प्रति उनका ऐसा प्रेम था। पुरंधरे ने अच्छे महकने वाले कई प्रकार के फूलों के पौधे खरीदे और एक बड़े बोरे में रख लिया। वह किसी तरह इस फूल के पौधे वाले बोरे के साथ कोपरगाँव पहुँचे। कोपरगाँव से शिर्डी जाने के लिए उनको कोई वाहन नहीं मिला इसलिए उन्होंने बोरे को सिर पर रखकर शिरडी पैदल चलना शुरू कर दिया। वे चिंतित थे कि अगर उन्हे कोई परिवहन का साधन प्राप्त नहीं होता तो शिरडी पहुँचने में देर हो जाएगी और सारे पौधे मुरझा जाएंगे। ईश्वर की कृपया से उन्हे गोदावरी नदी पार करने के बाद एक बैलगाड़ी मिल गई।
शिरडी पहुँचने पर उन्होंने राधाकृष्ण माई की कुटिया में सारे पौधे रख दिये और बाबा से मिलने के लिए द्वारकामाई पहुंचे। बाबा ने पूछा, “क्या आप अपने परिवार को अपने साथ लाए हैं या अकेले आए हैं? आप कब तक यहां रहने की योजना बना रहे हैं?”
पुरंधरे ने स्पष्ट जवाब दिया, “बाबा मैं तब तक रहूंगा जब तक आप मुझे अनुमति देते”। आप सभी जानते हैं कि जो भी बाबा से शिर्डी मिलने आते थे, बिना बाबा के अनुमति के वापस नहीं जाते थे और जो कोई इस बात को नहीं मानता उनका यात्रा विफल रहता। बाबा ने कहा, “ठीक है, अब मुझे दक्षिणा दे दो”।
उदी देते समय, बाबा ने कहा, “यह ज्यादा होशियार बन रहा है, जरूर कुछ नया काम करने वाला है।“ परमात्मा से कुछ भी छिपा नहीं रहता। सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनना बाबा का रासलीला था।
राधाकृष्ण माई जो मीरा के समान भक्त थी, ने बाबा और पुरंधरे के बीच के रिश्ते को परख लिया था और सलाह देते हुए कहा, “तुम पौधे लाए हो, लेकिन कुछ भी करने से पहले अपनी माँ (आई – साईं बाबा) की अनुमति लेना।“ राधाकृष्ण माई की सलाह का पालन करते हुए पुरंधरे सीधे बाबा के पास गए। उन्होंने बाबा को बताया कि उनको कुछ पौधे लगाने हैं और पौधे लगाने की अनुमति मांगी। बाबा तुरंत क्रोधित हो गए और गुस्से में कहा, “ये पौधे अपने घर पर लगाओ, जब उन पर फूल खिलें, तो उन्हें अपनी पत्नी को उपहार में दें। आप मेरे सर पर यह बोझ डालने की योजना क्यों बना रहे हैं? मैं आपको और आपके परिवार को यहां से बाहर निकाल दूंगा। ये अंग्रेज देश की संपत्ति को लूट रहे हैं और आप यहां एक बगीचा बनाने की योजना बना रहे हैं जो गैर-समझदारी है। आप दिन-रात मेरे पीछे पड़े हो। क्या मैंने आपके पिता से कुछ लिया है? मुझे रोटी का एक टुकड़ा भी नहीं देते हो”। बाबा अपने ठेठ तरीके से गाली देते रहे।
पुरंधरे ने साहस जुटाया और कहा, “बाबा, मैं आपकी छावड़ी और द्वारकामाई को नहीं बिगाड़ रहा हूँ। मैंने पौधे लगाने के लिए पौधे लाए हैं, वे सूख रहे हैं”। बाबा ने गुस्से में उत्तर दिया, “सभी पौधे फेंक दो!”
पुरंधरे, बाबा के व्यवहार से बिल्कुल दुखी होकर राधाकृष्ण माँ के पास लौट आए। रात में बाबा शांत हो जाने के बाद, उन्होंने फालसे को पुरंधरे को बुलाने के लिए कहा। उसने जाकर पुरंधरे को बताया कि बाबा ने उसी क्षण उसे बुलाया था। पुरंदरे ने उत्तर दिया, “मैं इस देर से बाबा के पास नहीं जा सकता हूँ। वह फिर से क्रोधित हो जाएंगे।“ इतना कहकर वह रोने लगा।
जब फालसे ने बाबा को ये बात बताया, तो उन्होंने गुस्सा हो कर कहा, “अगर वह स्वेच्छा से नहीं आ रहा है तो उसे कलाई से पकड़कर खींच कर ले आओ”। राधाकृष्ण माई ने पुरंधरे को यह समझाने की कोशिश की, “बाबा आपके लिए दिन-रात एक माँ की तरह चिंता करते हैं और एक माँ अपने बच्चे के साथ लंबे समय तक नाराज नहीं रह सकती। यहां तक कि अगर पौधे सूख जाते हैं, तो बाबा फूल खिलने का आशीर्वाद देंगे।” अब तुम उनके पास जाओ। यह बात सुन कर पुरंधरे के दिल में से भय उतरा।
जैसे ही पुरंदरे ने द्वारकामाई में कदम रखा, अपने सद्गुरु को देखते ही वह जोर-जोर से रोने लगे। उसे देखकर बाबा ने कहा, “भाऊ, आप मुझे अकेला क्यों नहीं छोड़ते? अब रोना बंद करो और मेरे पास आ जाओ। मैं दिन-रात तुम्हारी देखभाल करता हूं। अब मेरी बात सुनो, जहां चाहो वहां पौधे लगाओ। मेरे रहते ये पौधे ऐसे ही सूख जाएंगे क्या? मैं यहाँ सूखे लोगों को भी तरोताजा करने के लिए हूँ! अपने पौधे लगाने के लिए बरगद के पेड़ की मिट्टी लें और अब खुद ही काम शुरू करें”। अपना सपना पूरा होते देख कर पुरंधरे ने फिर से रोना शुरू कर दिया, लेकिन इस बार खुशी के आँसू थे और उसका पूरा शरीर रोमांचित हो गया और हृदय गद गद हो गया। ऐसा लगा जैसे की उसके शरीर में एक झटका लगा हो। बाबा उसे प्यार से देखकर मुस्कुराए। पुरंधरे ने राधाकृष्ण माई की सहायता से नीचे की ओर खुदाई करके बरगद के पेड़ की मिट्टी लाकर सभी पौधे सुखपूर्वक लगाए।
एक बार पुरंदरे द्वारकामाई की दीवारों में गड्ढे भर रहे थे। दोपहर के भोजन का समय था और इसलिए अन्य भक्त दीक्षित वाड़ा में भोजन करने के लिए चले गए थे, लेकिन पुरंधारे काम करते रहे। बाबा ने उसे भोजन करने के लिए प्रेरित किया, जब पुरंदरे ने उत्तर दिया, “जब तक मैं यह काम पूरा नहीं कर लेता, तब तक मुझे भोजन नहीं करना है।” इससे बाबा गुस्से में आ गए और जैसे ही उन्होंने पुरंधरे के तरफ छलांग लगाई और उनका गला पकड़ लिया, “चालाक साथी, यहां से बाहर निकलो। तुम मुझे बहुत परेशान कर रहे हो। मैं तुम्हें आज मार डालूंगा। तुम मेरे द्वारकामाई को नष्ट करने के लिए दृढ़ हो।” कोई माँ अपने बचे को भूखा देख सकती है क्या? उसे गुस्सा नहीं आएगा जब वो अपने बच्चे को भूखा देखती है! पुरंदरे ने कांपती हुई आवाज में उत्तर दिया, “बाबा, मैं आपके द्वारकामाई को नष्ट नहीं करना चाहता, मैं इसे मरम्मत कर रहा हूं”। बाबा के बात को सुन्ने के बजाय जब पुरंधरे ने वापस जवाब दिया तब ये जवाब आग में घी का काम किया। बाबा को और अधिक गुस्सा आया और उसने कहा, “बेवकूफ, तुम मेरे साथ बहस कर रहे हो और प्रतिस्पर्धा करने के लिए यहां आए हो। मैं इतना कह रहा हूँ और तुम्हें भोजन करने की भी परवाह नहीं है”। आप तो जानते हैं कि बाबा कभी नहीं चाहते थे की कोई भी खाली पेट उनकी सेवा करे और इसी लिए बाबा पुरंधरे को अन्न ग्रहण करने को प्रेरित कर रहे थे। भूखे भजन न होय गोपाला – जब पेट भूखा होता है तो मन कभी ध्यान मगन नहीं हो सकता और गुरु या ईश्वर के प्रति आस्था नहीं रख सकता। यह बात समझाने हेतु उनके दर्शन करने वाले सभी को बाबा हमेशा कहते थे कि खाली पेट कभी मत आया करो। लोगों को खाना खिलाते थे और किसी भी इंसान या अन्य कोई प्राणी का भूखा रहना सहन नहीं कर सकते थे। कोई परमात्मा किसी जीवात्मा के भूख को सहन कर सकता है क्या!?
फकीर बाबा ने पुरंधरे को मना लिया और उन्होंने थोड़ी देर के लिए काम रोक दिया। इसे देखकर बाबा ने एक प्रेममयी माँ के रूप में अपने पास पुरंधरे को बुलाया और कहा, “तुम चीजों को नष्ट करने की कोशिश क्यों करते हो? मेरे पास आओ”। क्रोधित न होते हुए भी एक क्रोधित व्यक्ति के तरह बाबा ने पुरंधरे को कलाई के पकड़ ली और उन्हें द्वारकामाई में अपनी बैठक की ओर खींच कर ले गए। उन्होंने कहा, “जो भी आप चाहते हो वो करो, लेकिन पहले अपना भोजन करें। आप सभी को अनावश्यक रूप से परेशान क्यों करते हैं?” यहाँ पर बाबा फिर दिखा रहे हैं कि अपने भक्त के भूके रहने से उनको कितना तकलीफ होता है। पुरंधारे ने बाबा के सभी डांट और गुस्से मे कहे गए शब्दों को ऐसे लिया जैसे की अपने पिता के द्वारा कहा गया हो और इसके बाद बाबा के संगति में भोजन करने का आनंद लिया जो सिर्फ बड़े सौभाग्यशाली लोगों को ही प्राप्त होता है। बाबा ने पुरंधरे के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए, उसे सत्यापित करने हेतु कहा, “भाऊ, ये गालियां, मार-पीट और गुस्से से कहे गए शब्द सभी को नहीं दी जाती है, केवल वही जो इनका हकदार है, सिर्फ उन्हें मिलता है”। इस पर पुरंदरे ने कहा “बाबा आपके आशीर्वाद तभी मीठे लगते हैं जब आप अपने नरसिंह अवतार से बाहर निकल आते हैं और हम पर अपने ममता से प्यार भरे शब्द न्योछावर कर देते हैं”।
साईं बाबा के प्रति पुरंधरे की आस्था अटूट और अडिग था। उन्होंने बाबा के सामने अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया था। भाग्य आत्मा है जो बाबा के गुस्से और क्रोधित अवस्था मे किए गए व्यवहार को भी अपने प्रति प्रेम की परिभाषा देते हुए अपना सर्वस्व त्याग देते हैं, क्यों कि गुस्सा सिर्फ अपनों से ही किया जाता है।
ॐ साइराम।