पिछला पद:
यह वर्ष 1907 की एक शाम की है जब साईं बाबा लेंडीबाग से ध्यान करके लौटे हैं। वह द्वारकामाई की रेलिंग पर हाथ रखकर आराम कर रहे थे। सूर्य अस्त होने वाला था और शिरडी के ग्रामीण अपने काम से निवृत्त होकर अपने घरों की ओर जा रहे थे। द्वारकामाई के पास सफेद कपड़ों में बाबा ने किसी को देखा। वे उस व्यक्ति से अपना आँख नहीं हटा सके। जैसे-जैसे व्यक्ति निकट आ रहा था, उन्हे पता चला कि वह एक महिला थी। क्या वह एक गृहिणी है, या वह एक संत है, वह एक रहस्य थी। वह सफ़ेद साड़ी में सजी थी और उसके कंधे पर एक झोली थी। एक हाथ में एकतारा और दूसरे में करतल की एक जोड़ी थी और उसने माधव संप्रदाय के अनुसार अबिल (सफेद चूर्ण) का तिलक लगाया था। जबकि तुलसी के बने कंगन उसकी दोनों कलाईयों पर सुशोभित थे, छोटी तुलसी की माला से बने एक हार ने उसकी गर्दन को अलंकृत किया। उसके बाल उसके घुटनों तक पहुँच रहे थे। हालाँकि उसकी बाहरी स्थिति चर्चा जनक नहीं थी पर, उनकी उपस्थिति विस्मयकारी एवं श्रद्धायुक्त थी।
जैसे ही वह द्वारकामाई के पास पहुंची, उस महिला ने अपना सामान नीचे रख दिया, और मस्जिद की सीढ़ियों पर चढ़े बिना, उसने अपना सिर पृथ्वी की ओर झुका दिया और अपने हाथों को साईं बाबा के सामने श्रद्धा से जोड़ दिया। उसने अपने थैले में से राधा-कृष्ण की मूर्ति निकाली, दो ईंटें इकट्ठी कीं, उसके ऊपर एक साफ कपड़ा रखा और उस पर मूर्ति स्थापित की। वहां पर बैठते हुए, वह अपने वाद्ययंत्रों को हाथ मे लेकर मीरा द्वारा रचित भजन गाने लगी।
दर्द ने भारी सुरीली आवाज में उनके गीतों में कई तरह के भवनाओं का झलक मिला। उनके गीतों ने घर लौट रहे ग्रामीणों को मंत्रमुग्ध कर दिया और वे समय का अंदाज खो बैठे। वे द्वारकामाई के आस-पास भजन को सुनने के लिए इकट्ठा हुए, जब तक घना अंधेरा नहीं छा गया हो। उस महिला के शब्दों ने उन्हे मंत्रमुग्ध कर दिया और वे संगीत में तल्लीन हो गए। साईं बाबा भी उनके गीतों को सुनने के लिए अपने तकिये पर टेक कर बैठे थे, जबकि महलासपति और तात्या कोटे पाटिल मगन और तनमन हो कर सुन रहे थे। अंत में वो मीटी और मधुर आवाज, और एकतारा बजाने वाली उंगलियां रुक गई। वो महिला भावनाओं में बह गई और तल्लीन हो गई थी, लेकिन उनकी आवाज लंबे समय तक श्रोताओं के भीतर गूंजती रही। जब वो महिला होश में आई तो बाबा ने उसे आशीर्वाद दिया और कहा, “देखो, वह पाठशाला खाली है, वहाँ जाओ और वहाँ रहना”।
साईं बाबा के शिरडी आने के कुछ वर्षों बाद, गाँव के बच्चों को शिक्षित करने का काम द्वारकामाई के सामने एक खाली झोपड़ी में किया गया। माधव राव देशपांडे, उर्फ शमा, जो बाबा के प्रति आकर्षित थे और उनके शिष्य बन गए, स्कूल में पढ़ाया करते थे। वह अक्सर बाबा के साथ धूम्रपान के कश साझा करने के लिए द्वारकामाई जाते थे, जिससे उन्हें बाबा के साथ संबंध बनाने का मौका मिलता था। बाद में, पाठशाला दूसरे स्थान पर चला गया; हालाँकि, लड़कियों का पाठशाला अभी भी उसी जगह से संचालित होता था, जिसे बाद में बंद कर दिया गया। उस महिला ने तब से उस कुटिया में रहने लागि और वह “मीरा की पवित्र जगह” में तब्दील हो गई।
राधा कृष्ण के प्रति सुंदरबाई का प्रेम और भक्ति अथाह था, और उसी कारण से शिरडी के ग्रामीणों ने उन्हें “राधाकृष्ण माई” पुकारना शुरू कर दिया। बाबा उसे “राधाकृष्णि” कहते थे। शिरडी में आने के पहले ही दिन, उसने खुद को “मंद अभागन, परम अभागन” कहा था, इसलिए बाबा उसे कभी कबार “अवधशा” कहते थे (जिसका अर्थ है – एक महिला जिसकी हालत ठीक नहीं है)। आखिरकार, हर कोई उनका मूल नाम भूल गए और वह “राधाकृष्ण माई” के नाम से प्रसिद्ध हो गई।
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स्रोत: साईं सरोवर से अनुवादित
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